🌟दिल्ली सल्तनत के इब्राहिम लोदी को दो दो बार हरानेवाला महान महाबली योध्दा राणा सांगा....!


🌟जैसे रणचंडी ने उन्हें अपने हाथों से पुरस्कार स्वरूप घावों के आभूषण पहनाए हों🌟

इस महान योद्धा के बारे में आप जितना पढ़ेंगे, उतना ही आश्चर्य में डूबते चले जायेंगे। लगभग सौ युद्ध और अधिकांश में विजय! शरीर के हर अंग पर युद्ध के चिन्ह सजाए इस रणकेसरी को खंडहर कहा गया, सैनिकों का भग्नावशेष... जैसे रणचंडी ने उन्हें अपने हाथों से पुरस्कार स्वरूप घावों के आभूषण पहनाए हों..

कल्पना कीजिये, एक योद्धा की एक आँख चली गयी और फिर भी वह लड़ता रहा। किसी दूसरे युद्ध में एक पैर नाकाम हो गया, वह फिर भी लड़ता रहा। किसी युद्ध में एक हाथ कट गया, वह फिर भी उसी उत्साह के साथ लड़ता रहा... जैसे युद्ध युद्ध नहीं, उसकी पूजा हो, तपस्या हो... अद्भुत है न ? ऐसी अद्भुत गाथाएं भारत में ही मिलती हैं... ऐसे योद्धा यहीं जन्म ले सकते हैं कुछ योद्धाओं की भूख प्यास युद्ध से ही तृप्त होती है। उन्हें न शरीर के घाव विचलित करते हैं, न परिस्थितियों की विकरालता रोक पाती है। युद्ध उनके लिए आनन्द का उत्सव होता है। राणा सांगा वैसे ही योद्धा रहे.

राजस्थान से बाहर के अधिकांश लोग महाराणा सांगा को बाबर से मिली पराजय के लिए जानते हैं। यह वस्तुतः भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पराजय है। महाराणा को याद किया जाना चाहिये दिल्ली सल्तनत के इब्राहिम लोदी को दो दो बार हराने के लिए। उन्हें याद किया जाना चाहिये गुजरात सल्तनत वाले मुजफ्फर शाह को पराजित करने के लिए। उन्हें याद किया जाना चाहिये मालवा के शासक महमूद खिलजी को पराजित कर तीन महीने तक बांध कर रखने के लिए... उन्हें याद किया जाना चाहिये मालवा से जजिया समाप्त करने के लिए, बयाना के युद्ध में बाबर को पराजित करने के लिए... उन्हें याद किया जाना चाहिये बर्बर आतंकियों के विरुद्ध भारतीय शक्तियों का एक मजबूत संघ बनाने के लिए। पर क्या उनका नाम सुनते ही आपको इन युद्धों की याद आती हैं ? नहीं आती होगी... 

महाराणा सांगा की मृत्यु की कहानी भी अद्भुत ही है। कहते हैं कि उन्हें उनके सामंतों ने ही विष दे दिया। क्यों ? क्योंकि खानवा के युद्ध में बाबर से पराजित होने के तुरंत बाद ही उन्होंने पुनः युद्ध की तैयारी शुरू कर दी थी। वह भी तब, जब उनका शरीर पूरी तरह से जर्जर हो चुका था। सामंत यह मानते थे कि अब इस युद्ध का कोई अर्थ नहीं, यह पराजय और सम्पूर्ण नाश का कारण बनेगा। जाने क्यों, मुझे इसपर भरोसा नहीं होता, किंतु यदि यह कहानी सच है तो क्या ही जुनून रहा होगा उनका... बुरी तरह घायल होने और सेनाविहीन हो जाने के बाद भी युद्ध में उतर जाने का साहस युगों में किसी एक के भीतर होता है। किसी योद्धा को रोकने के लिए उसके प्रिय लोगों को ही उसे विष देना पड़े, तो आप उसकी भावनाओं  का अंदाजा लगा सकते हैं।

योद्धा का आकलन उसकी राजनैतिक/कूटनीतिक विजयों पराजयों से कम, उसके शौर्य से अधिक होना चाहिए। उसमें राष्ट्र के लिए लड़ने रहने का जुनून कितना है, उसके भीतर युद्धलालसा कितनी है... कोई भी राष्ट्र किसी एक युद्ध में हार जाने से समाप्त नहीं होता, राष्ट्र पराजित तभी होता है जब उसके नायकों का शौर्य चूक जाय। हजार वर्षों के संघर्ष की यात्रा में भारत अनेक युद्ध हारा है, पर उसके नायक शौर्य की कसौटी पर कभी भी असफल नहीं हुए... और यही कारण है कि भारत हार कर भी नहीं हारा...


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